नॉएडा में हुए घरेलु मजदूर के ऊपर हिंसा पे भाकपा माले की रिपोर्ट

Photo Courtesy – Times Of India

भाकपा माले, ऐक्टू और दिल्ली टीचर्स इनिशिएटिव (डी टी आई) की एक टीम जिसमे कामरेड ऊमा गुप्ता, जीशान, शिव कुमार व अभिषेक शामिल थे, दिनांक 13 जुलाई को नॉएडा में जोहरा से मिलने गई. टीम की मुलाक़ात जोहरा की सास के साथ हुई, जिन्होंने ने कई बातें बताईं. इसके अलावा आसपास रहने वाले कई मजदूरों से भी टीम ने बात की. जोहरा के साथ 11-12 जुलाई को ‘महागुन अपार्टमेंट’, नॉएडा में बंधक बना कर मार-पीट की गई थी, जिसके बाद से वहां रहने वाले मजदूरों में काफी रोष और भय का माहौल बना हुआ है. घटना के बाद लगातार स्थानीय पुलिस द्वारा मजदूरों को परेशान किया जा रहा है, कई मजदूरों को 12 जुलाई की रात पुलिस द्वारा उठा लिया गया.
घरेलू कामगारों के बदतर होते हालात

 
देश भर में घरेलु कामगारों के ऊपर अत्याचार बहुत ही आम बात हो चली है, आए दिन दिल्ली-मुंबई समेत तमाम बड़े शहरों से घर पर काम करने वाले मजदूरों, खासकर महिला मजदूरों के अमानवीय शोषण की ख़बरें आती रहती हैं. हाल ही में दिल्ली गोल्फ क्लब से उत्तर पूर्व से आनेवाली एक महिला को इसलिए बाहर निकाल दिया गया क्योंकि दिल्ली गोल्फ क्लब में ‘नौकरों’ जैसे दिखने वाले लोग नहीं बैठ सकते ! कुछ साल पहले ही दिल्ली के जनकपुरी इलाके में एक घरेलू कामगार मुमताज़ बेगम को इतना पीटा गया था कि उसकी मौत हो गई. 2015 में दिल्ली-एन सी आर के गुडगाँव इलाके में रहनेवाले एक दंपति ने 13 वर्षीय घरेलु-कामगार लड़की को अलमारी में बंद कर दिया था, इसके कुछ ही दिन बाद झारखण्ड की दो लड़कियों को प्रताड़ित करने वाला मामला दिल्ली के वसंत कुंज के से भी आया था.

 
अगर हम इन मामलों की निरंतरता को देखें तो ये बात समझने में देर नहीं लगेगी कि लगातार बढती असमानता और श्रम कानूनों का असंगठित क्षेत्र के लिए बिलकुल बेमतलब होना, घरेलू कामगारों को और ज्यादा हाशिए पर पहुंचा रहा है.

 
नॉएडा की घटना पर चर्चा भी इसलिए ही हो रही है क्योंकि मजदूर साथियों ने चुपचाप सबकुछ सहने के बजाय, मालिकों के दरवाजे पर जाकर सवाल पूछे, उनसे अपने काम का दाम माँगा. अमीरों के तलवे चाटने वाली सरकार और उसकी संस्थानें सिर्फ पैसेवालों के प्रति वफादारी के लिए प्रतिबद्ध है. लगातार हो रहे श्रम कानूनों में परिवर्तन को देखें तो समझ में आता है कि सरकार ‘बाल-श्रम’ को कानूनी रूप से सही तक ठहरा चुकी है. ऐसे में घरों में काम करने के लिए झारखण्ड, बंगाल, उड़ीसा समेत अन्य राज्यों से आने वाले बच्चों का घरों में शोषण और भी आम हो जाएगा.

 
अगर बात करें जोहरा कि तो जो तथ्य सामने आते हैं वो किसी भी समाज को शर्मिंदा कर देने वाले हैं. जोहरा को रात भर बंदी बनाकर पीटा जाता है – वो भी सिर्फ इसलिए क्योंकि वो अपना हिसाब मांग रही थी, और तो और हक-अधिकार की बात करनेवाले मजदूरों को – ‘बंगलादेशी’ कह कर प्रताड़ित किया जा रहा है. अगर कोई मुसलमान है और बंगला बोलता है, तो वो अवश्य ही ‘बंगलादेशी’ होगा/होगी- संभ्रांत समाज की शिक्षा और दीक्षा शायद उन्हें इतना ही कुपित बनाती है, उन्हें अपने घरों में किसी मजदूर का टॉयलेट प्रयोग करना नहीं भाता, वो मजदूर के साथ एक लिफ्ट में भी नहीं चढ़ सकते, उन्हें बिना वजह पीट सकते हैं, सलाखों से दाग सकते हैं, नंगा कर सकते हैं, यहाँ तक कि कुत्तों से भी कटवा सकते हैं. अगर कोई बांग्लादेश या किसी और देश से आकर यहाँ जी भी रहा हो तो किसी को ये अधिकार नहीं मिलता कि उसके मानवाधिकारों का हनन कर सके.

 
पुलिस दमन : गरीबों की पहुँच से बाहर न्याय

 
जोहरा की सास ने हमारी टीम को बताया कि “पुलिस वाले रात को अचानक आए और गली के सभी पुरुषों को उठाकर ले गए, पुलिस वालों ने घर का दरवाज़ा भी तोड़ डाला.” सात सौ रूपए देकर दिल्ली की गर्मी में टिन शेड में रहने को मजबूर ये मजदूर पहले बड़ी बड़ी इमारतों को बनाते हैं, मेट्रो की लाइनों को बिछाते हैं, सड़के और सीवर बनाते हैं, फिर इनके ‘अपवित्र’ शरीर को सिर्फ इतने भर की इजाज़त होती है कि ये झूठे बर्तन मांज सके, पखाना-पेशाब साफ़ कर सके, या टॉमी को घुमा सके ! हमारी टीम को वहाँ मौजूद सभी मजदूर अपने ‘आधार कार्ड’ और ‘मतदाता पहचान पत्र’ दिखाते रहे, और साथ में ये भी कहते रहे – “हम इसी देश में पैदा हुए, और यहीं रहे, कमाया-खाया, पर आजतक हमें किसी ने ‘बाहर-वाला’ नहीं कहा था. ये हमारे साथ पहली बार हो रहा है !” एस एस पी लव कुमार ने अपने बयान में कहा है कि सारे ज़रूरी कागज़ात जोहरा के पास उपलब्ध हैं और उसके बंगलादेशी होने की बात सही नहीं है.

 
संघ-भाजपा शुरू से ही नफरत की फसल काटते आए हैं, इनसे जुड़े छात्र संगठन तो कई बार स्कूल-कालेजों की दीवारों पर, छात्र-मुद्दों की जगह- ‘बंगलादेशी-घुसपैठियों को भगाओ’ इत्यादि नारे भी लिख आते हैं. ऐसे में जब इनकी सरकार है तो आए दिन भीड़ द्वारा दलितों-मुसलमानों और गरीबों का मार दिए जाने की घटनाएं हो रही हैं. उत्तर प्रदेश में लगातार धार्मिक और जातिगत उन्माद भड़का कर आम जनता को मूलभूत मुद्दों से भटकाया जा रहा है. ऐसे में ‘बंगलादेशी’ कहकर मजदूर का उत्पीड़न करना, संघी- सरकारी तंत्र की मंशा को जाहिर करता है.

 
जोहरा की सास ने हमें बताया ,“जब जोहरा ने अपने नियोक्ता से काम छोड़ने की बात कही, तब उसे धमकी दी गई.” उन्होंने पुलिस द्वारा तोड़े गए अपने घर के दरवाज़े की ओर दिखाते हुए बताया कि उनके 15 वर्षीय नाती को भी पुलिस अचानक रात में उठा कर ले गयी. उनके अनुसार जब जोहरा समय पर लौट कर नहीं आई तो उन्होंने उसे खोजने की बहुत कोशिश की, अगली सुबह जब वो मिली तो जोहरा बेहोश होकर गिर गयीं.

 
सरकारी उदासीनता : असंगठित क्षेत्र के मजदूरों की बुरी स्थिति

 
मौजूदा श्रम कानून तो संगठित क्षेत्र के मजदूरों के लिए भी कोई राहत नहीं दे पाते और हाल ही में ‘रिफार्म’ के नाम पर इन्हें भी खत्म किया जा रहा है. ऐसे में घरेलू कामगारों के लिए देश की राजधानी दिल्ली और एन सी आर में न तो कोई तय न्यूनतम वेतन है और न ही कोई कानूनी सुरक्षा. अगर हम ‘असंगठित मजदूर सामाजिक सुरक्षा कानून, 2008’ की बात करें जिसे तथाकथित रूप से असंगठित मजदूरों के लिए लाया गया था तो हम पाएंगे कि इसमें कई खामियां हैं – अव्वल तो इसमें न्यूनतम वेतन की कोई बात तक नहीं की गई है, वेतन न देने पर कोई दंडात्मक कार्यवाही की भी बात नहीं है. न तो इस कानून में कार्य-समय के ऊपर कुछ कहा गया है और न ही एजेंसियों द्वारा लाए जा रहे मजदूरों के सुरक्षा के बारे कोई बात है. घरेलू कामगारों में ज़्यादातर महिलायें होती हैं, पर लैंगिक उत्पीडन से बचाव अथवा काम के क्षेत्र में अन्य सुरक्षा के प्रावधान इस कानून से पूर्ण रूप से गायब हैं. देशभर में केवल 7-8 राज्यों ने असंगठित क्षेत्र के मजदूरों के लिए न्यूनतम वेतन के प्रावधान बनाए हैं, दिल्ली तक में घरेलू कामगारों के लिए कोई पुख्ता कानून नहीं है.

 
देश भर में हो रहे मजदूर अधिकारों के हनन व सांप्रदायिक उन्माद के खिलाफ एकजुट हों

 
नॉएडा की घटना कोई पहले घटना नहीं है, न ही आखिरी. इससे पहले भी कई बार घरेलू कामगार महिलाओं के साथ उत्पीडन की घटनाएं सामने आई हैं. मजदूर जब तक चुपचाप बिना मेहनताना मांगे काम करे – तब तक तो वो बहुत अच्छा लगता है, पर जब वो अपने काम का पूरा दाम मांगता है, जैसा की जोहरा ने माँगा, तब वो ‘हमलावर’, ‘बंगलादेशी’ और पता नहीं क्या क्या हो जाता है. जब तक मजदूर मालिक की हाँ में हाँ भरे तब तक तो वोह एक ‘अच्छा’ मजदूर होता है,

 

 

परन्तु जब वो यूनियन बनाने की बात करता है तो उसे तुरंत ही ‘हत्यारा’ कह कर सज़ा दे दी जाती है, जैसा की प्रिकॉल और मारूति में हुआ है. गरीब-मजदूर जब महंगाई, बेरोज़गारी जसे मुद्दों पर सर उठाने लगता है तो उसे धर्म और राष्ट्रवाद के नाम पर बांटने की साजिश रची जाती है.
आज ज़रुरत है कि सरकार समय रहते मजदूरों के अधिकारों की सुध ले और नॉएडा की इस घटना पर सख्त कार्यवाही करे. साथ ही साथ जो लोग इन मजदूरों को ‘बंगलादेशी’ कहकर एक सांप्रदायिक माहौल बनाने की कोशिश कर रहे हैं, उनके ऊपर सख्त कार्यवाही हो और किसी भी तरह के सांप्रदायिक उन्माद को फैलने से रोका जाए.

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